Tuesday, November 6, 2018

एक दिवाली - बेटियों के नाम

गर्भ से हीं वो जुर्म को सहती आई,
भ्रूण हत्या से लेकर बलात्कार तक ; हर जुर्म से वो लड़ती  आई,
कभी सफल हुई तो कभी असफल हुई,
फिर भी वो हर सितम को चुपचाप सहती हुई आई |

जब भी उसने अपने हक के लिए आवाज़ उठाई,
हमेशा पुरानी विचारधारा उसकी आवाज़ को दबाती गई,
अपनी बात को रखने का अवसर तो, जैसे छीन हीं लिया गया था उससे,
क्योंकि; अपने हीं परिवार में वों, बराबरी का दर्जा कहाँ पा पाई|

जन्म से लेकर मृत्यु तक, कभी भी उसे प्रेम ना मिला,
इस "मंगल कलश" को सदैव, अपमान का हीं घूँट मिला,
कुडे़दान से लेकर गन्दे नालों तक, हर तरफ फेंका उसको,
फिर भी वो देवी का रूप, इस धरा पर; हर क्षण अवतरित हुआ|

उसके आने से तीज - त्यौहारों की रौनक तो पुनः लौट आई,
साथ - ही - साथ माँ - बापू की चिंता भी लौट आई,
बेटी के पालन - पोषण से लेकर, उसके दहेज तक की चिंता,
उन्हें अपनी हीं बेटी के, लाड़-प्यार से दुर करती चली गई |

विडम्बना हैं मेरे देश की, बेटी जन्म तो वो भी नहीं चाहता,
"बेटी बचाओं" के साथ - साथ, मृत्यु के हथियार जो उपलब्ध कराता हैं,
लाखों प्रयास किये उस माँ ने, अपनी बेटी को बचाने के लिए,
फिर भी; हर क्षण हार की जीत हुई, उसकी बेबसी के आगे |

आओ हम सब मिलकर, इस दिवाली एक प्रण लें की  ,
बेटी जैसे "प्रकाश रूपी दिये" की लौ; निरंतर जलती रहें,
प्रण लें कि; "मानव लक्ष्मी" का सम्मान भी, "धन लक्ष्मी" जैसा ही करेंगें,
उन्हें मृत्यु प्रदान करने वाले हथियारों का सदैव बहिष्कार करेंगें|

वास्तविकता से अनभिज्ञ होकर भी, हम बेटी जन्म नहीं चाहते,
"धन लक्ष्मी" तो चाहते हैं, लेकिन "मानव लक्ष्मी" नहीं चाहते,
दियों से प्रकाश की लौ जले, यह भावना तो हर अंतर्मन में जाग्रत हैं,
किन्तु उन बुझे दियों को जलाने की भावना, हर अंतर्मन में बुझ-सी गई हैं |
©

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